गजल

न जाने आज गांव से पनघट कहां गए 

सर से उतर के लाज के घूंघट कहां गए 

हर इक लिहाज शर्म को खूंटी पे टांग कर 

सच बात कहने वाले मुहं फट कहा गए 

सर पर उठाए फिरते थे जो घर को हर घड़ी 

घर से निकल के आज वो नटखट कहां गए 

बस एक काम करने में सौ काम ले लिए 

लोगों के काम करने के झंझट कहां गए 

घर में घनेरे पेड़ से घर घर बुजुर्ग थे 

लाठी बजाते आज वो खटखट कहां गए। 

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