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कागा तुम नहीं आते मेरे द्वार - कविता
कागा तुम नहीं आते मेरे द्वार
वर्षों पहले तुम आते थे
अपनी कांव - कांव से यह बताते थे
कि प्रिय घर आने वाले हैं
और मैं सज धज कर
तैयार हो जाती थी, तुम्हारे इंतजार में।
और प्रेम कबूतर तुम
तुम भी नहीं आते हो
न चीधियां लेकर जाते हो
न साजन का कोई नया संदेश सुनाते हो
न निशि दिन छत की मुंडेर पर खड़ी
निर्मल आकाश को निहारती रहती हूं
और तुम निष्ठुर' पक्षी नहीं आते हो
और हीरामन तुम
तुमने तो न जाने कितनी बार
पिया मिलन की आश जगाई
बार-बार उनका नाम बढ़ाई।
खैर मैनें भी तुम्हारी निष्ठुरता से तंग आकर
एक वैज्ञानिक यंत्र कम्प्यूटर से दोस्ती कर ली
और प्रतिदिन ई-मेल चेटिंग से
प्रेम पथ पर बढ़ रहें हैं
महीनों बाद आज फिर तुम
तीनों की याद आई है
क्योंकि आज मेल बाउंस हो गया है।
और संदेशे का जवाब आया है कि
प्राप्तकर्ता अपने पते पर उपलब्ध नहीं है।
इसलिए तुम तीनों से हाथ जोड़कर है ये गुहार
कि फिर से पधारों म्हारे द्वार !
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