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शून्य से शिखर तक
शून्य से शिखर तक
निस्सीम राह पर निकल चला
कुछ सुधिया ही शेष उस चन्दन की
शून्य से शिखर तक में
इस दुर्गम सफर में
रीत गया क्या कुछ नहीं।
एक दीप ही लड़ता रहा घोर तम से
लो बीत गई अब यामिनी भी।
करता हूं अब विसर्जन,
मद्धिम सी आसत्ति का
शेष रह गया निस्तेज मन ही
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