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ग़ज़ल
ग़ज़ल - ग़ैर के कहने पे मेरे इम्तिहां होते रहे ?
मेरे सब्रो-ज़ब्त, मेरे राजदां होते रहे,
जब चला चर्चा मेरा सब बेजुबां होते रहे।
ग़ैर के आरिज पे तेरे लब ग़ज़ल लिखते रहे,
हम तुम्हारी बेरुख़ी की दास्तां होते रहे।
आसमां छूने को थे बेताब मेरे ख्वाब सब,
'पर'तो मिल पाए नहीं, लेकिन धुआं होते रहे।
नीम-जां अरमान की किश्तों में जां खींचती रही,
इस पे जब -जब वो सितमगर मेहरबां होते रहे।
सिर्फ़ तेरी ही रज़ा होती तो होता क्यूं गिला,
ग़ैर के कहने पे मेरे इम्तिहां होते रहे।
ऐ मेरे जज्बा-ए-उल्फ़त, आगे है इक दश्ते-गम,
जिसमें ग़ुम जज़्बात के सब कारवां होते रहे।
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