मैं दीप हूं तुम्हारा - कविता

मैं दीप हूं तुम्हारा:-

कैसी भी कलमुंही हो-बेशक हो घोर काली 

ना रूप हो ना रंगत - खाती होरोज गली 

जिसकी हथेलिया पर मेहंदी नहीं रची हो 

काजल की कोर तक कोरी नहीं बची हो 

उसके लिए मै 'दीपक'-खुद को जला रहा हूं 

मावस की मांग भरने पैदल ही आ रहा हूं।। 

आकार में हूं  छोटा ( पर ) संकल्प में बड़ा हूं 

मुझको पता है मैं भी रणक्षेत्र में खड़ा हूं 

अंधे अंधेरे की जिद को मैं खूब जानता हूं 

माता मेरी है मिट्टी इसको भी मानता हूं 

जननी का ऋण चुकाऊं संकल्प मैंने पाला 

मुझको जला के देखो दे दूंगा उजाला।। 

रातें डरावनी हो पागल हो जब अंधेरा 

लगने लगे कि अब तो दूर है सवेरा 

( तब ) छाती पे मेरी रख है दो सरनेह एक बाती 

मेरे बिना नहीं वो काम भी आती 

उषा की पालकी में सूरज न आए जब तक 

मैं दीप हूं तुम्हारा जलता रहुंगा तब तक 

 

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